आचार्य श्रीराम किंकर जी >> अंगद चरित्र अंगद चरित्रश्रीरामकिंकर जी महाराज
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हमारे जीवन रूपी लंका में मोह का स्वरूप और समाधान
Angad Charitra a hindi book by Sriramkinkar Ji Maharaj - अंगद चरित्र - श्रीरामकिंकर जी महाराज
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशन-संदर्भ
परम पूज्यपाद सद्गुरुदेव श्रीरामकिंकरजी महाराज द्वारा प्रवाहित रामकथा गंगा का यह वह एकत्रित जल है जिसको समय-समय पर संजोकर रख लिया गया। अब किसी को जब कभी भी उसमें अवगाहन और आचमन की इच्छा हो, वह कर सकता है। वास्तव में इसमें कोई सन्देह नहीं कि महाराजश्री के शील स्वभाव और जीवन को यदि एक शब्द में बाँधना हो तो शायद गंगा से बढ़कर और कोई शब्द उनके लिए सूझता नहीं। उनके चिन्तन में गंगा की पवित्रता, शीतलता और निरन्तरता के साथ-साथ गहराई का ऐसा अनुभूत दर्शन होता है जो वाणी का विषय नहीं है। धन्य हैं वे वक्ता जो उनकी वाणी का प्रसाद अपने श्रोताओं में यह कहकर बाँटते हैं कि ये विचार पूज्य श्रीरामकिंकरजी के हैं।
एक सज्जन ने मुझसे कहा कि एक प्रख्यात वक्ता को मैंने महाराज-श्री के विचार प्रस्तुत करते सुना, पर उन्होंने कहीं पर भी उनके नाम का संकेत नहीं दिया, मैंने कहा कि आपको इसमें दुःखी होने की आवश्यकता नहीं है। जब उन्होंने उनके विचारों को अपने अन्दर आत्मसात कर लिया, उनकी श्रेष्ठता, महानता और प्रासंगिकता को तो स्वीकार कर ही लिया और विचारों की श्रेष्ठता को स्वीकार कर वह श्रेष्ठ वस्तु लोगों को बाँट रहे हैं। इससे तो महाराज-श्री को प्रसन्नता ही होगी और जब प्रकाशक किसी वस्तु को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करता है तो उसका उद्देश्य भी तो यही है कि इस ज्ञान का अधिक से अधिक लोगों को लाभ मिले।
महाराज-श्री जब प्रवचन करते थे तो श्रोताओं के मुखारविन्द और शरीर की स्थिति बिल्कुल वैसी ही होती थी, जैसे किसी सुन्दर वाटिका में मंद-मद हवा चलने पर पौधों की होती है। वे हर झोंके पर लहलहाते हैं और झूमते हैं। मैंने यह दृश्य साक्षात् देखा है।
महाराज-श्री की कृपा से इस वर्ष एक साथ दो ग्रन्थों का प्रकाशन विषय के अनुसार बड़ा ही सांकेतिक और सारगर्भित है-ज्ञानदीपक एवं अंगद चरित। इन प्रकाशनों का विषय सांकेतिक इन अर्थों में हैं, क्योंकि सामान्य व्यक्ति से लेकर तत्त्वज्ञानी महापुरुषों तक सबके जीवन में एक तो वह संसार है जिसमें वे जीते दिखाई दे रहे हैं और एक संसार वह है जो उनके अन्दर है। घटनाक्रम लगभग एकही है। बाहर व्यक्ति हैं तो अन्दर वृत्ति। दोनों के समाधान में ग्रन्थों ने और महापुरुषों ने अपने-अपने तौर तरीके से समाधान दिए हैं, पर महाराज-श्री की जो अलौकिकता है वह यह है कि वे प्रत्येक विषय को प्रतिपादित करते समय किसी एक दिशा में झुकते नहीं अर्थात् यदि वे किसी एक किनारे का पक्ष लें और दूसरे को न्यून सिद्ध करें तो उनकी अलौकिकता न रहकर वे एक पक्ष के प्रतिपादक ही होंगे, पर ज्ञानदीपक के रूप में वे चाहे अन्तरंग संसार की समस्याओं का समाधान दें, चाहें अंगद चरित के माध्यम से प्रवृत्ति की विभीषिकाओं का वर्णन करें, पर उनका पहिया डगमगाता नहीं है और वे अपने पाठकों और श्रोताओं को सुरक्षित, व्यवस्थित और कल्याणकारी मार्ग से लक्ष्य तक पहुँचा देते हैं।
प्रवृत्तिमार्गियों के लिए अंगद चरित्र और निवृत्तिपरायण महापुरुषों के लिए ज्ञानदीपक का प्रकाशन मणिकांचन योग है।
रामायणम् ट्रस्ट आप लोगों की इस भावना के लिए कृतज्ञ और कार्यरत है कि पूज्य महाराज-श्री का यह दिव्य साहित्य समाज का मार्गदर्शन करता रहे।
रामायणम् ट्रस्ट की अध्यक्षा परमभक्तिमयी मंदाकिनीश्रीरामकिंकर जी एवं रामायणम् ट्रस्ट के सभी ट्रस्टियों के इस प्रकाशन अनुमोदन के लिए मैं इन सबको पूज्य महाराज-श्री की ओर से आशीर्वाद देता हूँ।
उन पाठकों के प्रति मेरा विशेष धन्यवाद है जो प्रवचनों में बुकस्टाल पल और अयोध्या आश्रम में पुस्तक लेकर जो अमृतवचन कहकर जाते हैं, वे इस प्रकाशन की प्रमुख प्रेरणा हैं।
एक सज्जन ने मुझसे कहा कि एक प्रख्यात वक्ता को मैंने महाराज-श्री के विचार प्रस्तुत करते सुना, पर उन्होंने कहीं पर भी उनके नाम का संकेत नहीं दिया, मैंने कहा कि आपको इसमें दुःखी होने की आवश्यकता नहीं है। जब उन्होंने उनके विचारों को अपने अन्दर आत्मसात कर लिया, उनकी श्रेष्ठता, महानता और प्रासंगिकता को तो स्वीकार कर ही लिया और विचारों की श्रेष्ठता को स्वीकार कर वह श्रेष्ठ वस्तु लोगों को बाँट रहे हैं। इससे तो महाराज-श्री को प्रसन्नता ही होगी और जब प्रकाशक किसी वस्तु को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करता है तो उसका उद्देश्य भी तो यही है कि इस ज्ञान का अधिक से अधिक लोगों को लाभ मिले।
महाराज-श्री जब प्रवचन करते थे तो श्रोताओं के मुखारविन्द और शरीर की स्थिति बिल्कुल वैसी ही होती थी, जैसे किसी सुन्दर वाटिका में मंद-मद हवा चलने पर पौधों की होती है। वे हर झोंके पर लहलहाते हैं और झूमते हैं। मैंने यह दृश्य साक्षात् देखा है।
महाराज-श्री की कृपा से इस वर्ष एक साथ दो ग्रन्थों का प्रकाशन विषय के अनुसार बड़ा ही सांकेतिक और सारगर्भित है-ज्ञानदीपक एवं अंगद चरित। इन प्रकाशनों का विषय सांकेतिक इन अर्थों में हैं, क्योंकि सामान्य व्यक्ति से लेकर तत्त्वज्ञानी महापुरुषों तक सबके जीवन में एक तो वह संसार है जिसमें वे जीते दिखाई दे रहे हैं और एक संसार वह है जो उनके अन्दर है। घटनाक्रम लगभग एकही है। बाहर व्यक्ति हैं तो अन्दर वृत्ति। दोनों के समाधान में ग्रन्थों ने और महापुरुषों ने अपने-अपने तौर तरीके से समाधान दिए हैं, पर महाराज-श्री की जो अलौकिकता है वह यह है कि वे प्रत्येक विषय को प्रतिपादित करते समय किसी एक दिशा में झुकते नहीं अर्थात् यदि वे किसी एक किनारे का पक्ष लें और दूसरे को न्यून सिद्ध करें तो उनकी अलौकिकता न रहकर वे एक पक्ष के प्रतिपादक ही होंगे, पर ज्ञानदीपक के रूप में वे चाहे अन्तरंग संसार की समस्याओं का समाधान दें, चाहें अंगद चरित के माध्यम से प्रवृत्ति की विभीषिकाओं का वर्णन करें, पर उनका पहिया डगमगाता नहीं है और वे अपने पाठकों और श्रोताओं को सुरक्षित, व्यवस्थित और कल्याणकारी मार्ग से लक्ष्य तक पहुँचा देते हैं।
प्रवृत्तिमार्गियों के लिए अंगद चरित्र और निवृत्तिपरायण महापुरुषों के लिए ज्ञानदीपक का प्रकाशन मणिकांचन योग है।
रामायणम् ट्रस्ट आप लोगों की इस भावना के लिए कृतज्ञ और कार्यरत है कि पूज्य महाराज-श्री का यह दिव्य साहित्य समाज का मार्गदर्शन करता रहे।
रामायणम् ट्रस्ट की अध्यक्षा परमभक्तिमयी मंदाकिनीश्रीरामकिंकर जी एवं रामायणम् ट्रस्ट के सभी ट्रस्टियों के इस प्रकाशन अनुमोदन के लिए मैं इन सबको पूज्य महाराज-श्री की ओर से आशीर्वाद देता हूँ।
उन पाठकों के प्रति मेरा विशेष धन्यवाद है जो प्रवचनों में बुकस्टाल पल और अयोध्या आश्रम में पुस्तक लेकर जो अमृतवचन कहकर जाते हैं, वे इस प्रकाशन की प्रमुख प्रेरणा हैं।
मैथिलीशरण
प्रथम
‘मानस’ में कुछ चरित्र ऐसे हैं, जो साधना की दृष्टि से बड़े उपयोगी हैं और उनमें से एक है अंगद का चरित्र। अंगद के चरित्र में कुछ उत्कृष्ट गुण हैं, तो उनके साथ कुछ कमियाँ भी हैं। परन्तु उनके चरित्र की यह विशेषता है कि उसमें निरन्तर विकास होता हुआ दिखाई देता है और वे क्रमशः अपनी कमियों से ऊपर उठते हुए भक्ति की चरम स्थिति तक पहुँचने में समर्थ होते हैं।
दूसरी ओर ‘मानस’ में कुछ चरित्रों में उत्कृष्ट-से-उत्कृष्ट गुण विद्यमान हैं। वे सिद्धावस्था तथा परिपूर्णता के चरित्र होते हुए भी हमारे लिए वन्दनीय तथा आदर्श तो हैं, परन्तु साधना में उन्नति के लिए जिस क्रम की आवश्यकता है, उन चरित्रों में उसका दर्शन नहीं होता है। पर कुछ ऐसे पात्र भी हैं, जिनके चरित्र में गुण तथा दोष दोनों ही पक्ष विद्यमान हैं। काकभुशुण्डिजी का चरित्र भी उनमें से एक है, जिसमें साधना की दृष्टि से क्रमिक विकास दीख पड़ता है।
अंगद के प्रारम्भिक चरित्र में कुछ कमियाँ हैं और वे उन कमियों को दूर करते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। काकभुशुण्डि के चरित्र में भी यही विशेषता है कि वे एक ऐसी स्थिति से साधना आरम्भ करते हैं, जब उनमें अनेकों दोष विद्यमान थे, पर इसके पश्चात् वे ऐसी स्थिति तक पहुँच जाते हैं कि कल्पान्त में भी उनके गुणों का विनाश नहीं होता। उनकी गणना राम भक्ति के महान आचार्यों में की गई है उनके चरित्र से हम लोगों को आशा बँधती है। ऊँचे-चरित्रों को पढ़कर या सुनकर प्रसन्नता और आनन्द की अनुभूति तो होती है, परन्तु उसमें एक यह भय लगा रहता है कि इतनी ऊँचाई तो हमारे जीवन में नहीं है। इतने उत्कृष्ट विचार, इतनी उत्कृष्ट भावना तो हमारे जीवन में नहीं है। साधक के जीवन में इससे एक प्रकार की निराशा सी आ सकती है कि वह इन विशेषताओं को अपने जीवन में ला पाने में समर्थ नहीं है। लेकिन जब हम ऐसे पात्रों के विषय में पढ़ते या सुनते हैं, जिनके चरित्र में हमारे ही समान अनेक त्रुटियाँ और कमियाँ विद्यमान हैं, परन्तु वे धीरे-धीरे इन कमियों से मुक्त होते हैं, तब इसके द्वारा हम लोगों को भी यह आश्वासन मिलता है कि निराश होने की कोई बात नहीं है; जिस स्थिति को इन भक्तों या पात्रों ने अपने जीवन में पाया है, उसी मार्ग पर चलकर हम भी उसे पा सकते हैं। अंगद का चरित्र ठीक इसी प्रकार का चरित्र है।
इसीलिए गोस्वामीजी इन चरित्रों पर बड़ा बल देते हैं। ‘विनय-पत्रिका’ में आप देखेंगे कि भगवान की कृपा का वर्णन करते समय वे उसके साथ बड़े-बड़े ऐतिहासिक पात्रों का नाम लेते हैं और अन्त में वे अपना नाम भी जोड़ देते हैं। भगवान की उदारता का वर्णन करते हुए वे कहते हैं-
दूसरी ओर ‘मानस’ में कुछ चरित्रों में उत्कृष्ट-से-उत्कृष्ट गुण विद्यमान हैं। वे सिद्धावस्था तथा परिपूर्णता के चरित्र होते हुए भी हमारे लिए वन्दनीय तथा आदर्श तो हैं, परन्तु साधना में उन्नति के लिए जिस क्रम की आवश्यकता है, उन चरित्रों में उसका दर्शन नहीं होता है। पर कुछ ऐसे पात्र भी हैं, जिनके चरित्र में गुण तथा दोष दोनों ही पक्ष विद्यमान हैं। काकभुशुण्डिजी का चरित्र भी उनमें से एक है, जिसमें साधना की दृष्टि से क्रमिक विकास दीख पड़ता है।
अंगद के प्रारम्भिक चरित्र में कुछ कमियाँ हैं और वे उन कमियों को दूर करते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। काकभुशुण्डि के चरित्र में भी यही विशेषता है कि वे एक ऐसी स्थिति से साधना आरम्भ करते हैं, जब उनमें अनेकों दोष विद्यमान थे, पर इसके पश्चात् वे ऐसी स्थिति तक पहुँच जाते हैं कि कल्पान्त में भी उनके गुणों का विनाश नहीं होता। उनकी गणना राम भक्ति के महान आचार्यों में की गई है उनके चरित्र से हम लोगों को आशा बँधती है। ऊँचे-चरित्रों को पढ़कर या सुनकर प्रसन्नता और आनन्द की अनुभूति तो होती है, परन्तु उसमें एक यह भय लगा रहता है कि इतनी ऊँचाई तो हमारे जीवन में नहीं है। इतने उत्कृष्ट विचार, इतनी उत्कृष्ट भावना तो हमारे जीवन में नहीं है। साधक के जीवन में इससे एक प्रकार की निराशा सी आ सकती है कि वह इन विशेषताओं को अपने जीवन में ला पाने में समर्थ नहीं है। लेकिन जब हम ऐसे पात्रों के विषय में पढ़ते या सुनते हैं, जिनके चरित्र में हमारे ही समान अनेक त्रुटियाँ और कमियाँ विद्यमान हैं, परन्तु वे धीरे-धीरे इन कमियों से मुक्त होते हैं, तब इसके द्वारा हम लोगों को भी यह आश्वासन मिलता है कि निराश होने की कोई बात नहीं है; जिस स्थिति को इन भक्तों या पात्रों ने अपने जीवन में पाया है, उसी मार्ग पर चलकर हम भी उसे पा सकते हैं। अंगद का चरित्र ठीक इसी प्रकार का चरित्र है।
इसीलिए गोस्वामीजी इन चरित्रों पर बड़ा बल देते हैं। ‘विनय-पत्रिका’ में आप देखेंगे कि भगवान की कृपा का वर्णन करते समय वे उसके साथ बड़े-बड़े ऐतिहासिक पात्रों का नाम लेते हैं और अन्त में वे अपना नाम भी जोड़ देते हैं। भगवान की उदारता का वर्णन करते हुए वे कहते हैं-
ऐसी कौन प्रभु की रीति ?
बिरद हेतु पुनीत परिहरि पाँवरनि पर प्रीति।।
गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाइ।
मातु की गति दई ताहि कृपालु जादवराइ।।
काममोहित गोपिकनिपर कृपा अतुलित कीन्ह।
जगत-पिता बिरंचि जिन्हके चरनकी रज लीन्ह।।
नेमतें सिसुपाल दिन प्रति देत गनि गनि गारि।
कियो लीन सु आपमें हरि राज-सभा मँझारि।।
ब्याध चित दै चरन मार्यो मूढ़मति मृग जानि।
सो सदेह स्वलोक पठयो प्रगट करि निज बानि।।
बिरद हेतु पुनीत परिहरि पाँवरनि पर प्रीति।।
गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाइ।
मातु की गति दई ताहि कृपालु जादवराइ।।
काममोहित गोपिकनिपर कृपा अतुलित कीन्ह।
जगत-पिता बिरंचि जिन्हके चरनकी रज लीन्ह।।
नेमतें सिसुपाल दिन प्रति देत गनि गनि गारि।
कियो लीन सु आपमें हरि राज-सभा मँझारि।।
ब्याध चित दै चरन मार्यो मूढ़मति मृग जानि।
सो सदेह स्वलोक पठयो प्रगट करि निज बानि।।
(वि.प.-214)
प्रभु राम के सिवाय अन्य किसी स्वामी की ऐसी रीति है ? जो अपने विरद के लिए पवित्र जीवों को छोड़कर पामरों से प्रेम करता हो ? गोस्वामी तुलसीदासजी एक-एक घटना को गिनाते हुए बताते हैं कि कृष्णावतार में राक्षसी पूतना अपने स्तनों में विष लगाकर उन्हें मारने गई थी, पर उन्होंने उसे माता जैसी गति प्रदान की; काम-मोहित गोपिकाओं पर अतुलित कृपा की; जगत के पिता ब्रह्मा ने भी आपकी चरण-धूलि ग्रहण की; जो शिशुपाल प्रतिदिन नियमपूर्वक गिन-गिनकर गालियाँ देता था, आपने उसे राज्यसभा के भीतर ही स्वयं में विलीन कर लिया; मूढ़ व्याध ने मृग समझकर आपके चरणों में तीर मारा, उसे भी आपने अपनी दयालुता की आदत के अनुसार सशरीर अपने लोक में भेज दिया।
इस प्रकार पुरातन काल के बड़े पात्रों के नाम गिनाने के बाद अन्त में इस पद की समाप्ति वे अपने नाम से करते हैं-
इस प्रकार पुरातन काल के बड़े पात्रों के नाम गिनाने के बाद अन्त में इस पद की समाप्ति वे अपने नाम से करते हैं-
कौन तिन्हकी कहै जिन्हके सुकृत अरु अघ दोउ।
प्रगट पातकरूप तुलसी सरन राख्यो सोउ।। (वि.प.214)
प्रगट पातकरूप तुलसी सरन राख्यो सोउ।। (वि.प.214)
इस प्रकार जिन जीवों के पाप और पुण्य दोनों थे उनकी तो बात ही क्या, प्रयत्क्ष पापों के पुंज तुलसीदास को भी जिन्होंने अपनी शरण में रख लिया है।
वर्तमान में इस लम्बे कथानक को सुनकर कोई व्यक्ति पूछ सकता है कि ये पात्र तो बड़े पुराने युग के हैं, हम इनसे परिचित नहीं हैं; तब वे स्वयं को और हम सभी को आश्वासन देते हुए तत्काल याद दिलाते हैं कि अन्य लोगों में तो पाप और पुण्य दोनों रहे होंगे, पर आप लोग मेरी ओर दृष्टि डालिए वे कहते हैं-‘‘मैं तो साक्षात् पातक-पुँज ही था, पर मुझ जैसे व्यक्ति ने भी प्रभु की कृपा प्राप्त कर ली, तो किसी व्यक्ति को निराश होने की आवश्यकता नहीं है।’’
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है-‘मानस’ में दो प्रकार के पात्र हैं-बड़े उच्च चरित्रवाले सिद्ध पात्र और अंगद के समान ऐसे पात्र, जो विषय-परायण हैं। उनके जीवन में साधना और उसके बाद सिद्धि आती है।
अब अंगद के चरित्र के क्रमिक विकास पर चर्चा होगी। अंगद का चरित्र सर्वप्रथम किष्ठिन्धाकाण्ड में उस समय सामने आता है, जब भगवान श्री राघवेन्द्र बालि के ऊपर बाण चलाते हैं। और बालि गिर जाता है, तब प्रभु आकर बालि के सामने खड़े हो जाते हैं। बालि भगवान को कुछ उलाहने देता है और कुछ प्रश्न करता है। भगवान बड़े कठोर शब्दों में बालि की भर्त्सना करते हैं और इसकी अन्तिम परिणति यह होती है कि बालि में सहसा एक परिवर्तन आता है तथा अपनी धृष्टता के लिए उनसे क्षमा माँगता है; भगवान की दया एवं करुणा की दुहाई देता है और तब भगवान की करुणा का रूप सामने आता है। भगवान बालि के मस्तक पर हाथ रख प्रस्ताव करते हैं कि वह जीवित रहे। परन्तु बालि बड़ी विनम्रतापूर्वक इस पुरस्कार को अस्वीकार कर देता है। बालि ने सोचा कि इस समय तो शरीर को त्याग देने में ही धन्यता है। लेकिन इसके साथ-ही-साथ बालि ने भगवान से कहा-प्रभो, एक रूप में तो मैं आपके धाम में जाकर मुक्ति के आनन्द का अनुभव करूँगा, परन्तु दूसरे रूप में सेवा का सुख भी पाना चाहता हूँ। इस तरह बालि ने अन्तिम क्षणों में ज्ञान और भक्ति-दोनों का सुख पा लिया। ज्ञान की चरम परिणति है मुक्ति और भक्ति का चरम लक्ष्य है-भगवान की सेवा-इस तरह बालि जब मुक्त हो जाता है, तो वह ज्ञान का चरम फल पा लेता है और जीवन के अन्तिम क्षण में अपने पुत्र अंगद को बुलाकर उसे भगवान श्रीराम के हाथ में सौंपते हुए उनसे निवेदन करता है-प्रभो, आप अंगद का हाथ पकड़ लीजिए और इसे अपने चरणों में स्थान दीजिए, सेवा का सौभाग्य दीजिए-
वर्तमान में इस लम्बे कथानक को सुनकर कोई व्यक्ति पूछ सकता है कि ये पात्र तो बड़े पुराने युग के हैं, हम इनसे परिचित नहीं हैं; तब वे स्वयं को और हम सभी को आश्वासन देते हुए तत्काल याद दिलाते हैं कि अन्य लोगों में तो पाप और पुण्य दोनों रहे होंगे, पर आप लोग मेरी ओर दृष्टि डालिए वे कहते हैं-‘‘मैं तो साक्षात् पातक-पुँज ही था, पर मुझ जैसे व्यक्ति ने भी प्रभु की कृपा प्राप्त कर ली, तो किसी व्यक्ति को निराश होने की आवश्यकता नहीं है।’’
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है-‘मानस’ में दो प्रकार के पात्र हैं-बड़े उच्च चरित्रवाले सिद्ध पात्र और अंगद के समान ऐसे पात्र, जो विषय-परायण हैं। उनके जीवन में साधना और उसके बाद सिद्धि आती है।
अब अंगद के चरित्र के क्रमिक विकास पर चर्चा होगी। अंगद का चरित्र सर्वप्रथम किष्ठिन्धाकाण्ड में उस समय सामने आता है, जब भगवान श्री राघवेन्द्र बालि के ऊपर बाण चलाते हैं। और बालि गिर जाता है, तब प्रभु आकर बालि के सामने खड़े हो जाते हैं। बालि भगवान को कुछ उलाहने देता है और कुछ प्रश्न करता है। भगवान बड़े कठोर शब्दों में बालि की भर्त्सना करते हैं और इसकी अन्तिम परिणति यह होती है कि बालि में सहसा एक परिवर्तन आता है तथा अपनी धृष्टता के लिए उनसे क्षमा माँगता है; भगवान की दया एवं करुणा की दुहाई देता है और तब भगवान की करुणा का रूप सामने आता है। भगवान बालि के मस्तक पर हाथ रख प्रस्ताव करते हैं कि वह जीवित रहे। परन्तु बालि बड़ी विनम्रतापूर्वक इस पुरस्कार को अस्वीकार कर देता है। बालि ने सोचा कि इस समय तो शरीर को त्याग देने में ही धन्यता है। लेकिन इसके साथ-ही-साथ बालि ने भगवान से कहा-प्रभो, एक रूप में तो मैं आपके धाम में जाकर मुक्ति के आनन्द का अनुभव करूँगा, परन्तु दूसरे रूप में सेवा का सुख भी पाना चाहता हूँ। इस तरह बालि ने अन्तिम क्षणों में ज्ञान और भक्ति-दोनों का सुख पा लिया। ज्ञान की चरम परिणति है मुक्ति और भक्ति का चरम लक्ष्य है-भगवान की सेवा-इस तरह बालि जब मुक्त हो जाता है, तो वह ज्ञान का चरम फल पा लेता है और जीवन के अन्तिम क्षण में अपने पुत्र अंगद को बुलाकर उसे भगवान श्रीराम के हाथ में सौंपते हुए उनसे निवेदन करता है-प्रभो, आप अंगद का हाथ पकड़ लीजिए और इसे अपने चरणों में स्थान दीजिए, सेवा का सौभाग्य दीजिए-
यह तनय मम सम बिनय कल्यानप्रद प्रभु लीजिए।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिए।।
4/9/छं-2
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिए।।
4/9/छं-2
भगवान श्रीराम ने अंगद को स्वीकार किया। यह ‘मानस’ में आनेवाला अंगद का पहला चित्र है, परन्तु आप जरा इसकी पृष्ठभूमि पर गहराई से ध्यान दें। बालि के ऊपर प्रहार, उसके बाद बालि के प्रति प्रसन्नता और तदुपरान्त बालि द्वारा किया जानेवाला अंगद का जो समर्पण है, इसमें भी साधना के विकास का ही एक क्रम प्रस्तुत किया गया है।
बालि के स्वरूप से आप लोग परिचित होंगे। ‘मानस’ के प्रारम्भ में ही यह बताया गया कि प्रभु ने जब नर रूप में अवतार लेने का निर्णय किया और यह आश्वासन दिया-हे मुनियों, सिद्धों, देवताओं, आप लोग डरिये मत हम मनुष्य का रूप धारण करके पृथ्वी का भार हरण करेंगे-
बालि के स्वरूप से आप लोग परिचित होंगे। ‘मानस’ के प्रारम्भ में ही यह बताया गया कि प्रभु ने जब नर रूप में अवतार लेने का निर्णय किया और यह आश्वासन दिया-हे मुनियों, सिद्धों, देवताओं, आप लोग डरिये मत हम मनुष्य का रूप धारण करके पृथ्वी का भार हरण करेंगे-
जानि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा।
तुम्हहि लागि धरिहऊँ नर बेसा।। 1/186/1
तुम्हहि लागि धरिहऊँ नर बेसा।। 1/186/1
पर देवताओं पर इसकी प्रतिक्रिया जैसी होनी चाहिए थी, वैसी नहीं हुई। उन्होंने इसका अर्थ यह लगा लिया कि अब तो भगवान ने घोषणा कर दी है कि वे रावण का वध करेंगे, अतः कोई चिन्ता की बात नहीं है, अब हम चलकर स्वर्ग का भोग करें। देवताओं की इस मनोवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए गोस्वामीजी ने एक शब्द लिखा और उस एक शब्द में ही देवताओं का चरित्र हमारे सामने आ गया। गोस्वामीजी कहते हैं-आकाशवाणी सुनकर जब देवता लौटने लगे, तो-
गगन ब्रह्मबानी सुनि काना।
तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना।। 1/186/8
तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना।। 1/186/8
इस तुरत फिरे शब्द में ही देवताओं का चरित्र सामने आ गया। देवताओं और इन्द्र के सन्दर्भ में यह समस्या कई बार बड़े विचित्र रूप में आती है।
वाराणसी विद्या और ज्ञान का केन्द्र तो है, लेकिन परम्परा के तीव्र आग्रही लोगों की संख्या भी वहाँ कम नहीं है। उनका आग्रह तो कभी-कभी सीमा लाँघ जाता है। अभी दो वर्ष पहले की बात है। वहाँ ‘मानस’ का नवाह्न यज्ञ हो रहा था। किसी युवा वक्ता ने वहाँ देवताओं के लिए कुछ निन्दा के वाक्य कह दिए। इस पर वहाँ पर बैठे हुए एक वयोवृद्ध सज्जन, जो एक उच्चकोटि के वैद्य तथा वक्ता भी हैं, ने तत्काल आयोजकों को लिख भेजा कि इनका भाषण बन्द करवा दो। इसका कारण उन्होंने बताया कि यहाँ नवाह्न यज्ञ हो रहा है, जिसमें हम लोगों ने देवताओं की पूजा की है, उनका आवाहन किया है और कोई वक्ता मंच से देवताओं की निन्दा करे, तो इससे बढ़कर अपराध क्या हो सकता है ? आयोजकों ने भी उसके प्रभाव में आकर उस वक्ता का भाषण रोक दिया। बाद में वह युवक वक्ता बेचारे बड़े उदास होकर मुझसे मिलने आए। मैं उस सम्मेलन में नहीं गया था, पर काशी में ही था।
जब उस युवक ने मुझे सारी बात बताई, मुझे अपने देखे तथा पढ़े हुए और भी कई प्रसंगों की याद आ गई, जहाँ देवताओं की निन्दा की गई है। एक बड़े प्रसिद्ध विद्वान ने लिखा कि गीता अवैदिक ग्रन्थ है, क्योंकि उसमें वेदों की महिमा को कम कर दिया गया है। उनका कहना है कि श्रीकृष्ण जब यह कहते हैं कि-त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन (2/45)
तो इसका अर्थ है कि श्रीकृष्ण की वेदों पर आस्था नहीं है। उसी आधार पर उन्होंने गीता को अवैदिक सिद्ध करने की चेष्टा की है। इसी प्रकार नवाहह्नयज्ञ में जिन विद्वान ने वक्ता की वक्तृत्त्व पर आपत्ति की उनका यह मानना है कि हमारे यज्ञों के मन्त्रों में देवताओं की स्तुति है। इन्द्र की तो बहुत ही स्तुति की गई है और यज्ञ के मुख्य वक्ता तो इन्द्र ही हैं, पर इस सन्दर्भ में उनका ध्यान ‘मानस’ के प्रसंगों पर नहीं गया। केवल ‘मानस’ ही क्यों, हमारे अन्य पौराणिक ग्रन्थों में भी यह बात आती है, परन्तु इसे सही दृष्टि से न समझ पाने के कारण ही ऐसा भ्रम होता है। श्रीमद्भागवत को ही उठाकर पढ़ लीजिए। उसमें भी आप ऐसी ही बात पाएँगे पर उन सज्जन ने इसे वक्ता की त्रुटि मान ली। मैं तो एक ऐसे विद्वान को भी जानता हूँ, जिन्होंने इसी आधार पर गोस्वामीजी को वेद-विरोधी सिद्ध कर दिया कि उन्होंने ‘मानस’ में यत्र-यत्र देवताओं तथा इन्द्र की निन्दा की है या हँसी उड़ाई है।
वस्तुतः हमारे यहाँ जो निन्दा-प्रशंसा का क्रम है, उसके वास्तविक उद्देश्य को न समझ पाने के कारण ही ऐसी भ्रान्ति होती है। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि यदि हम मानते हैं कि यह सारी सृष्टि गुणों और दोषों से मिलकर बनी है, तो यही बात सबके साथ जुड़ी हुई है। जब किसी व्यक्ति में अनेक उत्कृष्ट गुण होते हैं, तो हम उन्हें वन्दनीय मानते हैं, उनकी पूजा करते हैं। यह तो ठीक है, पर इसके बावजूद जो उत्कृष्ट या वन्दनीय होता है, उसमें कोई कमी भी तो हो सकती है।
निन्दा और प्रशंसा दो प्रकार से की जाती है। एक तरह की निन्दा-प्रशंसा तो की जाती है द्वेष-राग या आसक्तिवश। जिसके प्रति आपका राग है, उसकी आप प्रशंसा करते हैं और वैसे ही जिसके प्रति हमारे मन में द्वेष या विरोध की भावना है, उसकी हम निन्दा करते हैं, परन्तु हमारी परम्परा के ये जो महान ग्रन्थ हैं, इनमें जो निन्दा और प्रशंसा है, वह वस्तुतः व्यक्तिपरक नहीं है। ‘मानस’ में गोस्वामी जी ने कई प्रसंगों में लिखा है कि गुण-दोष मिथ्या हैं, पर जब उन्होंने सन्त के गुण और असन्तों के दोषों का वर्णन किया, तो किसी ने कहा-महाराज, यह तो आपकी बात स्वयं अपने आप कट गई; एक ओर तो आप गुण-दोष का भेद ही मिथ्या बताते हैं और दूसरी ओर आप इतने विस्तारपूर्वक गुणों और दोषों का वर्णन करते हैं। ऐसा क्यों ? इसका उत्तर आपको ‘मानस’ की उस पंक्ति में मिलेगा, जहाँ गोस्वामीजी कहते हैं- वस्तुतः ये जो गुण-दोष बताए गए हैं, उसका उद्देश्य यह है कि गुण को जानकर हम अपने जीवन में उसे ग्रहण करें उनका संग्रह करें और दोषों को जानकर उसका परित्याग करें-
वाराणसी विद्या और ज्ञान का केन्द्र तो है, लेकिन परम्परा के तीव्र आग्रही लोगों की संख्या भी वहाँ कम नहीं है। उनका आग्रह तो कभी-कभी सीमा लाँघ जाता है। अभी दो वर्ष पहले की बात है। वहाँ ‘मानस’ का नवाह्न यज्ञ हो रहा था। किसी युवा वक्ता ने वहाँ देवताओं के लिए कुछ निन्दा के वाक्य कह दिए। इस पर वहाँ पर बैठे हुए एक वयोवृद्ध सज्जन, जो एक उच्चकोटि के वैद्य तथा वक्ता भी हैं, ने तत्काल आयोजकों को लिख भेजा कि इनका भाषण बन्द करवा दो। इसका कारण उन्होंने बताया कि यहाँ नवाह्न यज्ञ हो रहा है, जिसमें हम लोगों ने देवताओं की पूजा की है, उनका आवाहन किया है और कोई वक्ता मंच से देवताओं की निन्दा करे, तो इससे बढ़कर अपराध क्या हो सकता है ? आयोजकों ने भी उसके प्रभाव में आकर उस वक्ता का भाषण रोक दिया। बाद में वह युवक वक्ता बेचारे बड़े उदास होकर मुझसे मिलने आए। मैं उस सम्मेलन में नहीं गया था, पर काशी में ही था।
जब उस युवक ने मुझे सारी बात बताई, मुझे अपने देखे तथा पढ़े हुए और भी कई प्रसंगों की याद आ गई, जहाँ देवताओं की निन्दा की गई है। एक बड़े प्रसिद्ध विद्वान ने लिखा कि गीता अवैदिक ग्रन्थ है, क्योंकि उसमें वेदों की महिमा को कम कर दिया गया है। उनका कहना है कि श्रीकृष्ण जब यह कहते हैं कि-त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन (2/45)
तो इसका अर्थ है कि श्रीकृष्ण की वेदों पर आस्था नहीं है। उसी आधार पर उन्होंने गीता को अवैदिक सिद्ध करने की चेष्टा की है। इसी प्रकार नवाहह्नयज्ञ में जिन विद्वान ने वक्ता की वक्तृत्त्व पर आपत्ति की उनका यह मानना है कि हमारे यज्ञों के मन्त्रों में देवताओं की स्तुति है। इन्द्र की तो बहुत ही स्तुति की गई है और यज्ञ के मुख्य वक्ता तो इन्द्र ही हैं, पर इस सन्दर्भ में उनका ध्यान ‘मानस’ के प्रसंगों पर नहीं गया। केवल ‘मानस’ ही क्यों, हमारे अन्य पौराणिक ग्रन्थों में भी यह बात आती है, परन्तु इसे सही दृष्टि से न समझ पाने के कारण ही ऐसा भ्रम होता है। श्रीमद्भागवत को ही उठाकर पढ़ लीजिए। उसमें भी आप ऐसी ही बात पाएँगे पर उन सज्जन ने इसे वक्ता की त्रुटि मान ली। मैं तो एक ऐसे विद्वान को भी जानता हूँ, जिन्होंने इसी आधार पर गोस्वामीजी को वेद-विरोधी सिद्ध कर दिया कि उन्होंने ‘मानस’ में यत्र-यत्र देवताओं तथा इन्द्र की निन्दा की है या हँसी उड़ाई है।
वस्तुतः हमारे यहाँ जो निन्दा-प्रशंसा का क्रम है, उसके वास्तविक उद्देश्य को न समझ पाने के कारण ही ऐसी भ्रान्ति होती है। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि यदि हम मानते हैं कि यह सारी सृष्टि गुणों और दोषों से मिलकर बनी है, तो यही बात सबके साथ जुड़ी हुई है। जब किसी व्यक्ति में अनेक उत्कृष्ट गुण होते हैं, तो हम उन्हें वन्दनीय मानते हैं, उनकी पूजा करते हैं। यह तो ठीक है, पर इसके बावजूद जो उत्कृष्ट या वन्दनीय होता है, उसमें कोई कमी भी तो हो सकती है।
निन्दा और प्रशंसा दो प्रकार से की जाती है। एक तरह की निन्दा-प्रशंसा तो की जाती है द्वेष-राग या आसक्तिवश। जिसके प्रति आपका राग है, उसकी आप प्रशंसा करते हैं और वैसे ही जिसके प्रति हमारे मन में द्वेष या विरोध की भावना है, उसकी हम निन्दा करते हैं, परन्तु हमारी परम्परा के ये जो महान ग्रन्थ हैं, इनमें जो निन्दा और प्रशंसा है, वह वस्तुतः व्यक्तिपरक नहीं है। ‘मानस’ में गोस्वामी जी ने कई प्रसंगों में लिखा है कि गुण-दोष मिथ्या हैं, पर जब उन्होंने सन्त के गुण और असन्तों के दोषों का वर्णन किया, तो किसी ने कहा-महाराज, यह तो आपकी बात स्वयं अपने आप कट गई; एक ओर तो आप गुण-दोष का भेद ही मिथ्या बताते हैं और दूसरी ओर आप इतने विस्तारपूर्वक गुणों और दोषों का वर्णन करते हैं। ऐसा क्यों ? इसका उत्तर आपको ‘मानस’ की उस पंक्ति में मिलेगा, जहाँ गोस्वामीजी कहते हैं- वस्तुतः ये जो गुण-दोष बताए गए हैं, उसका उद्देश्य यह है कि गुण को जानकर हम अपने जीवन में उसे ग्रहण करें उनका संग्रह करें और दोषों को जानकर उसका परित्याग करें-
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने।
संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।।1/5/2
संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।।1/5/2
गुण-दोष का वर्णन केवल अपने गुण और दूसरों के दोष देखने के लिए नहीं किया गया है, वह तो अपने ही जीवन में दोषों का त्याग और गुणों का संग्रह करने के लिए है। हमारे जीवन में तो उल्टा ही हो जाता है। दूसरों के दोष देखकर हम उनसे घृणा करने लग जाते हैं, उनकी निन्दा करने लग जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि इस विषय में हमारी दृष्टि भ्रान्त है, हम दूसरों का दोष देखते हैं, व्यक्ति को दोषी देखते हैं, पर यह नहीं देखते कि दूसरों का दोष-दर्शन करते हुए, निन्दा करते हुए हम स्वयं भी दोषों में लिपटे हुए हैं। वैसे ही हम गुणों की प्रशंसा तो बहुत करते हैं, पर गुणों को जीवन में लाने की चेष्टा नहीं करते। ‘मानस’ का तात्पर्य है कि-जब हम किसी का गुण देखते हैं, तो उद्देश्य केवल उन गुणों की प्रशंसा करना नहीं है, उद्देश्य तो उन गुणों को अपने जीवन में ले आना है। इसी प्रकार जब किसी पात्र के दोषों का वर्णन किया जाता है, तब उसका उद्देश्य भी यही रहता है कि यदि हमारे जीवन में दोष हों तो उसका परित्याग कर देना चाहिए।
ऐसी स्थिति में इन्द्र आदि देवता वन्दनीय हैं या निन्दनीय ? इसका उत्तर यह है कि ‘मानस’ में इन्द्र आदि देवताओं की प्रशंसा भी की गई है और निन्दा भी। इसका भी उद्देश्य वही है। बालि और अंगद के चरित्र को आप इसी पृष्ठभूमि पर देखें। देवता वन्दनीय क्यों हैं ? क्योंकि हमारी मान्यता है कि जो पुण्यात्मा होते हैं, वे देवत्व को प्राप्त होते हैं। जो विश्व का श्रेष्ठतम पुण्यात्मा है, वे ही अपने समय में इन्द्र-पद को प्राप्त होते हैं। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति सौ अश्वमेध यज्ञ कर लेता है, उसे भविष्य में इन्द्र-पद प्राप्त होता है। इसका तात्पर्य यह है कि देवत्व पुण्य का परिणाम है और इन्द्र-पद पुण्य की पराकाष्ठा का परिणाम है। ऐसी स्थिति में पुण्य के साथ कुछ दोष भी होते हैं या नहीं ? पुण्य में भी कुछ कमियाँ होती हैं या नहीं ? बड़ी सीधी-सी बात है-जब कहा जाता है कि पुण्य से देवत्व प्राप्त होता है और उसके बाद स्वर्ग का जो वर्णन किया गया है, उसमें विस्तार से यही तो बताया है कि स्वर्ग में कितनी प्रचुर मात्रा में भोग सुलभ हैं; तो यह सब बताने का क्या अभिप्राय है ? पुण्य के द्वारा व्यक्ति देवत्व को पाकर भले ही स्वर्ग के प्रचुर भोग प्राप्त कर ले, पर वस्तुतः देवत्व के द्वारा वह भोग को ही तो अपने जीवन का लक्ष्य बनाए हुए है। मर्त्यलोक में भोग के स्थान पर वह कोई उत्कृष्ट कर्म करके देवलोक में जाकर स्वर्ग के भोगों को भोगना चाहता है। ऐसी स्थिति में पुण्य चाहे जितना ऊँचा हो, जब उसमें भोग की वृत्ति छिपी हुई है और भोग के साथ जो समस्याएँ जुड़ी हुई हैं, वे स्वर्ग में भी आए बिना नहीं रहेंगी। इसीलिए हमारे शास्त्र बिना किसी संकोच के यह बात कह देते हैं कि पुण्य से देवत्व प्राप्त होता है, पर इसके साथ एक अन्य वाक्य भी जुड़ा हुआ है-क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (गीता-9/21)। आपने पुण्य के द्वारा भोग पाया, पुण्य की पूँजी समाप्त हुई और आप पुनः स्वर्ग से नीचे की ओर ढ़केल दिए जाएँगे। इसका अभिप्राय यह है कि यह देवत्व भी उत्थान और पतन के क्रम से मुक्त नहीं है। देवत्व वन्दनीय है, परन्तु इस अर्थ में नहीं कि उसमें कोई कमी नहीं है। देवता निन्दनीय भी हैं और प्रशंसनीय भी। हमें बस इतना ही सावधान रहना है कि जहाँ तक वे वन्दनीय हैं, हम उनकी वन्दना करें, यह नहीं कि कहीं पर देवता की निन्दा कर दी गई, तो हम उनकी पूजा करना ही बन्द कर दें।
ऐसी स्थिति में इन्द्र आदि देवता वन्दनीय हैं या निन्दनीय ? इसका उत्तर यह है कि ‘मानस’ में इन्द्र आदि देवताओं की प्रशंसा भी की गई है और निन्दा भी। इसका भी उद्देश्य वही है। बालि और अंगद के चरित्र को आप इसी पृष्ठभूमि पर देखें। देवता वन्दनीय क्यों हैं ? क्योंकि हमारी मान्यता है कि जो पुण्यात्मा होते हैं, वे देवत्व को प्राप्त होते हैं। जो विश्व का श्रेष्ठतम पुण्यात्मा है, वे ही अपने समय में इन्द्र-पद को प्राप्त होते हैं। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति सौ अश्वमेध यज्ञ कर लेता है, उसे भविष्य में इन्द्र-पद प्राप्त होता है। इसका तात्पर्य यह है कि देवत्व पुण्य का परिणाम है और इन्द्र-पद पुण्य की पराकाष्ठा का परिणाम है। ऐसी स्थिति में पुण्य के साथ कुछ दोष भी होते हैं या नहीं ? पुण्य में भी कुछ कमियाँ होती हैं या नहीं ? बड़ी सीधी-सी बात है-जब कहा जाता है कि पुण्य से देवत्व प्राप्त होता है और उसके बाद स्वर्ग का जो वर्णन किया गया है, उसमें विस्तार से यही तो बताया है कि स्वर्ग में कितनी प्रचुर मात्रा में भोग सुलभ हैं; तो यह सब बताने का क्या अभिप्राय है ? पुण्य के द्वारा व्यक्ति देवत्व को पाकर भले ही स्वर्ग के प्रचुर भोग प्राप्त कर ले, पर वस्तुतः देवत्व के द्वारा वह भोग को ही तो अपने जीवन का लक्ष्य बनाए हुए है। मर्त्यलोक में भोग के स्थान पर वह कोई उत्कृष्ट कर्म करके देवलोक में जाकर स्वर्ग के भोगों को भोगना चाहता है। ऐसी स्थिति में पुण्य चाहे जितना ऊँचा हो, जब उसमें भोग की वृत्ति छिपी हुई है और भोग के साथ जो समस्याएँ जुड़ी हुई हैं, वे स्वर्ग में भी आए बिना नहीं रहेंगी। इसीलिए हमारे शास्त्र बिना किसी संकोच के यह बात कह देते हैं कि पुण्य से देवत्व प्राप्त होता है, पर इसके साथ एक अन्य वाक्य भी जुड़ा हुआ है-क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (गीता-9/21)। आपने पुण्य के द्वारा भोग पाया, पुण्य की पूँजी समाप्त हुई और आप पुनः स्वर्ग से नीचे की ओर ढ़केल दिए जाएँगे। इसका अभिप्राय यह है कि यह देवत्व भी उत्थान और पतन के क्रम से मुक्त नहीं है। देवत्व वन्दनीय है, परन्तु इस अर्थ में नहीं कि उसमें कोई कमी नहीं है। देवता निन्दनीय भी हैं और प्रशंसनीय भी। हमें बस इतना ही सावधान रहना है कि जहाँ तक वे वन्दनीय हैं, हम उनकी वन्दना करें, यह नहीं कि कहीं पर देवता की निन्दा कर दी गई, तो हम उनकी पूजा करना ही बन्द कर दें।
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